-दीपक रंजन दास
छत्तीसगढ़ सहित देशभर में नेताओं के मंचों के टूटने का सिलसिला जारी है. कोरबा के बाद अब मुंगेली में स्वागतोत्सुक लोगों के बोझ तले मंच ने दम तोड़ दिया. मंचों के टूटने का यह कोई पहला मामला नहीं है. हर महीने-दो महीने में नेताओं के मंचों के टूटने की खबरें आती रहती हैं. मामला मंचों की मजबूती का नहीं है. मंच को कितना भी मजबूत बना लो, स्वागत करने वालों के उत्साह के आगे वह कमजोर ही साबित होता है. दरअसल, पूरा मामला अनुशासन का है. स्कूल-कालेजों के वार्षिकोत्सव से लेकर शादी के रिसेप्शन तक में अस्थायी मंचों का निर्माण किया जाता है. पर राजनीति के मंचों को छोड़कर शेष सभी मंचों पर एक अनुशासन होता है. मंच पर लगने वाली कुर्सियों की संख्या तय होती है. मंच पर एक तरफ से लोग आते हैं और एक तरफ से निकल जाते हैं. मंच पर अनियंत्रित भीड़ कभी नहीं होती. राजनीति के मंच पर माननीयों की कुर्सियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते दो तीन पंक्तियों तक जा पहुंचती हैं. जो भी बेचारा भाषण देने के लिए खड़ा होता है, उसके पास बोलने के लिए भले ही ज्यादा कुछ न हो पर वह 5-7 मिनट तक आराम से बोलता रहता है. इस दौरान वह केवल मंच पर उपस्थित लोगों को संबोधित करता है. इसके बाद कहीं जाकर वह ‘भाइयों और बहनों’ तक पहुंचता है. पर इससे पहले नेताओं के स्वागत के लिए तमाम वो कार्यकर्ता मंच पर आने की होड़ मचा देते हैं जिन्होंने बड़े-बड़े जयमाल पर अच्छा खासा खर्च किया होता है. ये मंच पर चढ़ते-उतरते भी गिर जाते हैं. मंच पर केवल माला पहनाना ही काफी नहीं होता. उसकी फोटोग्राफी भी जरूरी होती है. उनके अपने लोग मोबाइल कैमरा हाथ में लिये मंच के सामने खड़े होते हैं. अकसर इनके उतरने से पहले ही और लोग चढ़ आते हैं और फिर मंच इनका बोझ नहीं संभाल पाता. मुंगेली में भी ऐसा ही हुआ. ऐसी स्थिति से बचने के दो उपाय समझ में आते हैं. पहला तो यह कि कस्बे से लेकर शहर तक ऐसे मैदान आरक्षित कर दिये जाएं जहां राजनीतिक कार्यक्रम किये जा सकते हों. इसके एक सिरे पर कंक्रीट का विशाल मंच बना दिया जाए. स्थायी मंच संभव न हो तो दो-चार ट्रेलर जोड़कर मंच बनाया जाए. वैसे इससे भी आसान तरीका यह है कि मंच पर स्वागत की परम्परा पर ही बैन लगा दिया जाए. नेताओं का स्वागत आयोजन स्थल के प्रवेश द्वार पर ठीक वैसे ही किया जाए जैसे बारात का किया जाता है. मंच पर केवल उतने ही लोग चढ़ें जिन्हें मंच से कुछ बोलना हो. प्रस्ताव सुनकर नेताजी मुस्कुराए. कहा, ऐसा नहीं हो सकता. कार्यकर्ता इसे स्वीकार नहीं करेंगे. कुछ कार्यकर्ताओं की कुल जमा पूंजी ही मंच पर नेताजी के साथ खिंचाई गई तस्वीरें होती हैं. वो इन्हीं तस्वीरों के दम पर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. उनके साथ नाइंसाफी नहीं की जा सकती.
Gustakhi Maaf: टूटते मंच, टपकते नेता और जनता का मनोरंजन
